Sunday, January 2, 2011
ishwar ki khoj :/discovery of god
१. प्रकृति के विराट vaअद्भुत स्वरुप में जहाँ एक ओर जीवनोपयोगी तथा कल्याणकारी पदार्थ हैं ,वहीँ दूसरी ओर इसके भयावह स्वरूप भी दिखाई पड़ते हैं/मन में प्रश्न उठता है -यह अद्भुत प्रकृति ,यह विराट संचेतना कहाँ से आयी?इसका नियंता कौन है? इसी प्रश्न के उत्तर में हमारे मन ने एक सर्वशक्तिमान इश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया है/हमने उस इश्वर को खोज्खोजकर निरंतर उसका परिचय पाने का प्रयत्न किया ,तब उसके अनेकानेक रूप उभरकर सामने आये/जिस प्रकार इस भौतिक जगत को देखनें के लिए ankhon की आवश्यकता होती है,उसी प्रकार dibya तत्वों को जाननें व समझने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है/श्रृष्टि के आरंभ में जब शिक्छा देने वाला कोई नहीं था,तब हमने प्रकृति के मद्ध्य ज्ञानार्जन किया/ मनुष्य अनादिकाल से किसी रह्श्यमायी शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करता चला आ रहा है/ और मनुष्य यह मानता है की उसी शक्ति के प्रभाव से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक ही धुरी पर घूम रहा है/तथा यह जड़ चेतन संसार संचालित है/ " शारीर दृश्य है और जीवनीशक्ति अदृश्य " मनुष्य शारीर से कर्म करता है और कर्म के द्वारा जगत के लिए उपयोगी होता हैऔर मनुष्य के अन्दर शरीरी है तथा शरीरी ज्ञान द्वारा स्वयं के लिए उपयोगी होता है/ शरीरी sukchhm वायु रूप में शरीर में प्रविष्ट होती एवं बाहर निकलती है परन्तु जब यह शरीर से तादात्म कर लेती है तो शरीरों का ग्रहण एवं त्याग भी करने लगती है यही जीवन एवं मृत्यु है/ "शरीर" पञ्च तत्वों द्वारा बना है/ मिटटी पानी वायु अग्नि और शुन्य से/ इसमें 5 ज्ञानेन्द्रियाँ एवं 5 कर्मेन्द्रियाँ है
ishwar ki khoj :/discovery of god
१. प्रकृति के विराट vaअद्भुत स्वरुप में जहाँ एक ओर जीवनोपयोगी तथा कल्याणकारी पदार्थ हैं ,वहीँ दूसरी ओर इसके भयावह स्वरूप भी दिखाई पड़ते हैं/मन में प्रश्न उठता है -यह अद्भुत प्रकृति ,यह विराट संचेतना कहाँ से आयी?इसका नियंता कौन है? इसी प्रश्न के उत्तर में हमारे मन ने एक सर्वशक्तिमान इश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया है/हमने उस इश्वर को खोज्खोजकर निरंतर उसका परिचय पाने का प्रयत्न किया ,तब उसके अनेकानेक रूप उभरकर सामने आये/जिस प्रकार इस भौतिक जगत को देखनें के लिए ankhon की आवश्यकता होती है,उसी प्रकार dibya तत्वों को जाननें व समझने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है/श्रृष्टि के आरंभ में जब शिक्छा देने वाला कोई नहीं था,तब हमने प्रकृति के मद्ध्य ज्ञानार्जन किया/ मनुष्य अनादिकाल से किसी रह्श्यमायी शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करता चला आ रहा है/ और मनुष्य यह मानता है की उसी शक्ति के प्रभाव से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक ही धुरी पर घूम रहा है/तथा यह जड़ चेतन संसार संचालित है/ " शारीर दृश्य है और जीवनीशक्ति अदृश्य " मनुष्य शारीर से कर्म करता है और कर्म के द्वारा जगत के लिए उपयोगी होता हैऔर मनुष्य के अन्दर शरीरी है तथा शरीरी ज्ञान द्वारा स्वयं के लिए उपयोगी होता है/ शरीरी sukchhm वायु रूप में शरीर में प्रविष्ट होती एवं बाहर निकलती है परन्तु जब यह शरीर से तादात्म कर लेती है तो शरीरों का ग्रहण एवं त्याग भी करने लगती है यही जीवन एवं मृत्यु है/ "शरीर" पञ्च तत्वों द्वारा बना है/ मिटटी पानी वायु अग्नि और शुन्य से/ इसमें 5 ज्ञानेन्द्रियाँ एवं 5 कर्मेन्द्रियाँ है
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